स्वयंसेवकः दिल्ली से 26 वर्षीय टीपू हैं; उनकी समस्या कम शब्दों में यही है कि लगभग 5 वर्षों से अवसाद से पीड़ित हैं और दवाइयों पर रहे हैं। कह रहे हैं कि – जब-जब दवा छूट जाती है तब तक बेहतर महसूस करता हूँ पर कुछ समय बाद दवा की जरूरत फिर से मुझे होती है। मैं दवा छोड़कर जीना चाह रहा हूँ लेकिन छोड़ नहीं पा रहा हूँ। आप के वीडियो सुनने में लगभग एक साल से बहुत रस आ रहा है, कृपया मार्गदर्शन दें।
आचार्य प्रशांतः दवा छोड़कर वैसे ही जिओगे जैसा तुम दवा के साथ जीते हो; तो दवा की जरूरत फिर से पड़ेगी। जैसी तुम ज़िंदगी जीते हो उस ज़िंदगी में वो दवा अनिवार्य होगी। उस ज़िंदगी का एक अविभाज्य हिस्सा होगी। तो उस ज़िंदगी से अगर तुम दवा को हटा दोगे और ज़िंदगी वैसे ही रखोगे पुराने जैसी, तो वह ज़िंदगी दोबारा माँग करेगी कि दवा वापस लाओ, दवा वापस लाओ।
दवा अगर हटानी है तो पुरानी ज़िंदगी भी हटानी पड़ेगी न, दोनों एक साथ हटेंगे। दवा हटाओ तो जैसा तुम्हारा ढर्रा चल रहा है वो भी बदल दो, दवा की जरूरत नहीं पड़ेगी। जिसको तुम अवसाद बोलते हो वो बात अधिकांशतः मानसिक है और ले रहे हो तुम उसके लिए गोली। कोई भी गोली असर मस्तिष्क पर करती है, मन पर नहीं।
अंतर समझ लेना।
ब्रेन (मस्तिष्क) और माइंड (मन) एक नहीं होते। मन मस्तिष्क एक नहीं होते। जो तुम गोली ले रहे हो उसके द्वारा तुम अपने मस्तिष्क के साथ कुछ छेड़खानी कर रहे हो। वो छेड़खानी तुम्हारे मन को सतही रूप से बदल देगी, गहराई से नहीं बदलेगी। इसीलिए मानसिक व्याधियों के लिए ये जो गोलियाँ लेने का प्रचलन है, ये कुछ अच्छा नहीं है। घातक भी हो सकता है।
जो बात मस्तिष्क की है ही नहीं, उसके लिए मस्तिष्क का इलाज करना बड़ी बेवकूफी की बात है। ये ऐसा ही है कि जैसे गाड़ी के भीतर चालक बैठा है शराबी; गाड़ी के भीतर चालक कैसा बैठा है? शराबी; और उसको खूब चढ़ी हुई है। उसको आदत है चढ़ाने की। अब वो गाड़ी लेकर के चले, तो बत्तियाँ जल भी रही हैं हेडलाइट तो कहें – धुँधला-धुँधला दिख रहा है; धुँधला-धुँधला दिख रहा है, कुछ साफ नजर नहीं आता। तो तुमने इलाज क्या निकाला – गाड़ी में दो-चार और बत्तियाँ लगा दो। समस्या चालक में थी; इलाज तुमने कर दिया - गाड़ी का।
अच्छा!
ये हो रहा है गोलियों का काम कि समस्या सूक्ष्म है, मन की है। इलाज तुम हार्डवेयर का कर रहे हो, मस्तिष्क का। समस्या चालक की थी; इलाज तुमने हार्डवेयर का कर दिया, किसका? गाड़ी का। ठीक है। और लेकर के चले तब भी? अगर इतनी पी रखी है, तो तुम चाहे वहां पर सर्चलाइट लगा दो, उन्हें दिखाई क्या देगा? गये भिड़ा दी।
जब भिड़ा दी तो तुमने इलाज क्या किया? बोले - अच्छा चलो ऐसा करते हैं गाड़ी में आगे वो जो इंजन में चलता था पुराना काउ केचर, वो लगा देते हैं। पुराने रेलवे इंजन देखे हैं? उसमें आगे लगाया जाता था एक काउ केचर। उसका नाम ही था काउ केचर; कि अगर पटरी पर गाय भी खड़ी हो तो जो काउ केचर होता था वो गाय को संभाल लेता था, पकड़ लेता था।
तो तुमने वो भी इतना बड़ा लगा दिया। तो भी क्या होगा?
जब तक चालक पिये हुए हैं, तब तक हार्डवेयर के साथ तुम कुछ भी करते रहो, गाड़ी तो बार-बार भिड़ेगी। हाँ, तुम ये कर सकते हो फिर कि उसको टैंक में बिठा दो कि अब कहीं भी भिड़ेगा, इसको कुछ नहीं होगा।
ठीक है, उसको कुछ नहीं होगा लेकिन फिर भी एक बात पक्की है - मंजिल तक नहीं पहुँचेगा। सोयेगा टैंक के भीतर, वही उल्टी करेगा, वहीं... टैंक गंधा देगा पूरा। फिर टैंक से तुम्हें गोला नहीं फायर करना है, भीतर की जो हवा है अंदर की वही फायर कर दो, दुश्मन मर जायेगा।
बैठे रहो टैंक में; अधिक से अधिक यही होगा कि तुम्हें शारीरिक क्षति नहीं होगी, लेकिन मंजिल पर पहुँच जाओगे क्या? जब तक मूल बात का इलाज नहीं किया जाएगा, मूल बात ये है कि तुम पियक्कड़ हो। और इलाज कर रहे हो तुम गाड़ी का। पिये रहते हो तो गाड़ी दाएं-बाएं भागती है। तुम गाड़ी में नई-नई तकनीक लगा रहे हो, हेडलाइट बदल रहे हो, कभी कुछ कर रहे हो, कभी...।
उससे क्या होगा?
ये काम चल रहा है आजकल मनोविज्ञान में, मनोचिकित्सक ये काम कर रहे हैं अस्पतालों में। कि मूल बात ये है कि उसको अहम् की समझ नहीं है। न खुद को जानता है, न संसार को जानता है। ना द्वैत जानता है, ना अद्वैत जानता है; इसलिए वो चिंता का शिकार हो रहा है, अवसाद का शिकार हो रहा है। और जहाँ कोई पहुँचा नहीं; कि उसको फट से गोली खिला दी। गोली खिलाने से उसका अज्ञान मिट जाएगा क्या?
सर्चलाइट लगाने से ड्राइवर को जो चढ़ी थी, उतर गई क्या? तब तो फिर से भिड़ेगी न गाड़ी? इस बार सर्चलाइट के साथ भिड़ेगी। तो ये गोलीयों वाले व्यापार से जरा बचना। हाँ, तुम्हारे मस्तिष्क में ही कुछ गड़बड़ हो गई हो, तो गोलियाँ खा लो। पर नब्बे प्रतिशत मामलों में बात मस्तिष्क की नहीं, मन की होती है।
और मन की मूल बीमारी है -‘अज्ञान’ जो किसी गोली से नहीं ठीक होने वाली। मन की मूल बीमारी है - मन का गलत केंद्र। मन का केंद्र अगर अहम् है तो किसी गोली से थोड़े ही हटेगा।। कौन-सी ऐसी गोली है जिससे तुम अहम् को तोड़ दोगे, बताओ जरा? दुनिया किस प्रयोगशाला में ऐसी गोली बन रही है, जो खा लो तो अहम् टूट जाएगा। पर मनोचिकित्सक ये मानेंगे नहीं।
क्यों? - मजबूर हैं।
वो कहेंगे – अभी-अभी ये बिल्कुल ताजी-ताजी गोली निकल कर आई है, लो इसको खाओ। और जब पचास, साठ, सत्तर तरह की गोलियाँ खिला दी तब भी तुम्हारा अवसाद मिट ही नहीं रहा, तुम्हारा मानसिक दोष दूरी ही नहीं हो रहा; तो कहेंगे - लाओ सर्जरी भी किये देते है। तुम कर दो सर्जरी; तुम गाड़ी का पूरा इंजन बदल दो। तो भी उसकी उतर गयी क्या?
तुमने गाड़ी का इंजन ही बदल डाला। तो भी जब चालक है भाई; पियक्कड़ है तो फिर भिड़ेगी।
ये चल रहा है अभी मनोव्याधियों के क्षेत्र में। गोलियों से मुक्त जीवन जिएँ। आपका मस्तिष्क नहीं खराब है, आपके मन को ज्ञान की रोशनी नहीं मिली है।
अध्यात्म की ओर आएँ। आप में से जितने लोग अपने-आप को ये बाइपोलर और ओसीडी और डिप्रेशन और एंग्जाइटी और इस तरह की तमाम बीमारियों का मरीज समझते हो, मैं उनसे कह रहा हूँ – “अध्यात्म की ओर आएँ।“
ये गोलियां आपके मस्तिष्क को और ज्यादा पंगु बना रही हैं। ये आपको सुला देती हैं। आपकी मस्तिष्क की क्षमता को कम कर देती हैं। ये आपको लाभ नहीं देंगी। अध्यात्म की ओर आइये; उसके अलावा कोई तरीका नहीं स्वस्थ मन का।