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सच की अनुकम्पा से ही सच की प्यास जगती है || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: आपको शायद ऐसा लग रहा है कि बातचीत करके आप एक-दूसरे को समझ रहे हो पर असल में बातचीत करके आपने आयोजन करा है एक-दूसरे से दूर रहने का। करके देखिएगा—किसी के साथ भी सामने बैठ जाईए और चुप हो जाईए, तो कैसी हालत ख़राब होती है। बोलना शुरू कर दीजिये तो सब बढ़िया है; आप आ गए बिलकुल समाज के दायरे में, आप सभ्य हो गईं हैं और आप बात शुरू कर देंगी कि, “मैं ऐसे दफ्तर में काम करती हूँ और वहाँ यह सब होता है, वो अपना किस्सा सुनाना शुरू कर देंगी।”

नकाब ने नकाब से बात-चीत शुरू कर दी।

हम इसीलिए बात करते हैं कि कहीं प्यार न हो जाए, तो बात कर लो; अच्छा तरीका है। कहीं मिलना न हो जाए इसीलिए शब्दों का इस्तेमाल कर लो। कहीं मौन न आ जाए इसीलिए बकवास शुरू कर दो। और मैं सिर्फ यह होठों वाले शब्दों की बात नहीं कर रहा मैं मन के शोर की भी बात कर रहा हूँ। वो भी इसीलिए होती है।

दूसरे ‘व्यक्ति’ से मिलन न हो जाए इसके लिए शब्द हैं और परम से ही मिलन न हो जाए तो उसके लिए विचार हैं। दोनों का उद्देश्य एक ही है कि कहीं मिलन न हो जाए।

मिलन में अहंकार बेचारे हो हटना पड़ता है ।

श्रोता १ : अगर हम किसी की मदद करना चाहते हैं, उसे कुछ समझाना चाहते हैं आप कुछ बोलो और सामने वाला सुने उसके लिए उसमें भी तो कुछ ग्रहणशीलता होनी चाहियें

आचार्य: अब आप लोग बार-बार वहाँ जाने लग गए हो जहाँ पर उत्तर काम नहीं आते हैं। ऐसी स्तिथि में तो जो होता है वो बस होता है। प्यार है अगर आप में इतना तो उसे आएगा समझ में। कैसे आएगा समझ में? यह नहीं कह सकते। इसका कोई तर्क नहीं है, कोई गणित नहीं है, कोई विधि नहीं दी जा सकती है कि किसी को क्यों समझ में नहीं आ रहा है। कोई विधि होती तो इस्तेमाल कर ली जाती। आज तक तो हुआ नहीं।

वो गिरा हुआ है गड्ढे में और उसने गड्ढे में ही घर बना लिया है, कीचड़ में ही लोट-पोट कर रहा है और वो मानने को नहीं तैयार है। हो सकता है कि आप रोने लग जाओ उसके सामने और वो समझ जाए, आपके आँसुओं से उसको समझ में आ जाए; हो सकता है आप उसके सामने डेरा डाल के बैठ जाओ तो वो आपके प्रेम से समझ जाए, आपका धैर्य समझा दे उसको।

कैसे हो सकता है? पता नहीं पर आप जो प्रश्न पूछ रहे हो वो यह है कि ‘मन को मन के पार की झलक कैसे दिखलाएं? झूठ में डूबे हुए मन को सच का दर्शन कैसे हो जाए?’ इसका कोई जवाब नहीं है क्योंकि यह तो अब श्रद्धा का, अनुकम्पा का काम है। उसकी कोई विधि होती तो मज़ा ही आ जाता। पूरी दुनिया आज़मा लेती। कुछ न कर पाओ तो बैठ जाओ और स्वीकार कर लो कि कुछ नहीं कर पाया। मेरे सामने मरीज़ मर रहा है और कुछ कर नहीं सकता, असहाय हूँ। यही करलो, और क्या करोगे। कोई विधि है नहीं। कौन कब कैसे जगेगा इसकी कोई विधि नहीं है। ये तो विस्फ़ोट होते हैं। कौन किसकी ज़िन्दगी में क्या कारण ले कर आ जाएगा यह कोई नहीं जानता।

एक पेड़ से टूटता हुआ पत्ता नीचे गिर रहा था और लाओतजु ने सिर्फ उसको देखा और कुछ हो गया। अब कौन सी विधि है ये कि जिसको कुछ न समझ में आता हो उसको पेड़ के नीचे खड़ा कर दो और पत्ते गिरेंगे तो उसको सब समझ में आ जाएगा; नहीं ऐसा तो नहीं कह सकते। मीरा को नांच-नांच के समझ में आया, नानक को गा-गा के समझ में आया, बुद्ध को चुप रह के समझ में आ गया, वाल्मीकि ने एक सवाल पूछा अपनी बीवी से उनको वहां से समझ में आ गया। कैसे किसको समझ में आएगा, यह आप नहीं जानते। आप तो वो कीजिए जो आप कर सकते हैं और हर तरीके से बात बन सकती है क्योंकि सब तरीके परम के ही तरीके हैं। कुछ नहीं कह सकते, ऐसे नहीं तो वैसे।

यह भाव छोड़ दीजिये के आपके करने से कुछ होगा। और यह भाव भी छोड़ दीजिये के आप के न करने से होगा। दोनों में से कोई भाव मत पकड़िए। आप करे जाइए बस। बात बड़ी अजीब सी कह रहा हूँ मैं, मैं कह रहा हूँ कि आप करे जाइए हालांकि आपके करे से होगा नहीं। बात अतार्किक है, आप पूछोगे कि, ‘जब करे से होना नहीं है तो करे क्यों जाएं?’ बस करे जाइए हालांकि आपके करने से कुछ होने वाला है नहीं। जो होता है वो होता है।

आप कैसे सिद्ध करोगे किसी को कि अतार्किक हुआ जा सकता है कि अतर्कसंगत ज़िन्दगी जी जा सकती है, कैसे करोगे? सबसे पहले तो खुद अतर्कसंगत होना पड़ेगा। आपका होना ही प्रमाण है बहुत बड़ा। पहले तो अपने होने को प्रमाण बनाइये। यह प्रमाण उसको समझ में ही आ जाए यह जरुरी नहीं है। पर इस प्रमाण के बिना तो कुछ नहीं होगा। इस प्रमाण से भी हो जाएगा ये भी आवश्यक नहीं है, पर इसके बिना तो कुछ नहीं होगा।

आप उसको तो कह रहे हो कि ‘तू गड्ढे से बाहर आ’ पर क्या उसको ये दिख रहा है कि आप अगर बाहर हो तो मौज में हो? तो सबसे पहले तो उसको ये दिखे कि आप मौज में हो नहीं तो जैसी उसकी हालत वैसी ही आपकी भी तो वो तो कहेगा कि ‘मैं गड्ढे में ही बेहतर हूँ न, तुझे क्या मिल गया गड्ढे से निकलकर, मरी हुई हालत तेरी है, सूखा-सूखा तू घूमता है और रोता-रोता, तो मैं तो गड्ढे में ही ठीक हूँ।’

संवाद होते हैं, कोई विद्यार्थी आएगा और कहेगा सर कि पिछली बार न आपने यह कहा था और वो बात पकड़ ली मैंने, और फिर मैं तो कई बार ऐसे सोचता हूँ कि मैंने कहा भी था क्या? बिलकुल भी याद नहीं कि कब कहा था। अब मुझे क्या पता कि किस बात से क्या हो रहा है। मैं तो कह सकता हूँ सो कह रहा हूँ। किसको क्या कहाँ से मिल गया और बड़ी से बड़ी बात, अपनी और से मैंने अपनी ओर से कही, जैसे: आचरण नहीं जागरण, वो सुन के ही सो गया।

दूसरी ओर कोई साधारण सी बात बोली और वो तीर चुभ गया, वो बात चली गई। और हम सोच रहे है कि यह तो हमने बोला भी नहीं और यदि बोला भी तो बस यूँ ही बोल दिया होगा, हो गया काम। और वो कह रहा है कि, ‘बस इसी से मुझे सब समझ में आ गया है यही है, असली बात यही है।’

आपको क्या पता कि कहाँ से किसको क्या मिल जाएगा। आप बस अपना काम करिए, बाकी छोड़िये। वो कहते है न कि – आप तो मस्त रहिये, आपकी कौन सी अदा किसको कब पसंद आ जाएगी ये आपको क्या पता। हजारों अदाएं हैं, पर हर अदा में हुस्न छिटकना चाहिए, बाकी किसको कौन सी भा गई वो उसकी तबियत पर है। समझ रहे हैं?

गंगा बह रही है, उस बहने से किसको, कहाँ, क्या मिल जाएगा उसे क्या पता और उसे बहुत मतलब भी नहीं है, वो बह रही है। उसका बहना ही उसका प्रेम है। वो नहीं कूद-कूद के जाती है कि, ‘मैं ज़रा अपने रास्ते से हट करके तुम्हारे लिए थोड़ा सा पानी ले कर आई हूँ।’ वो तो अपने रास्ते पर ही बह रही है। उसका बहना ही उसका प्रेम है। तो पहले तो बहिये फिर आपसे किसको क्या मिल जाएगा वो आपको खुद नहीं पता। खबर कहाँ-कहाँ तक फैलती है, तरंग कहाँ-कहाँ तक जाती है ये आप नहीं जानोगे।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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