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सफलता के लिए कैसी शिक्षा ज़रूरी?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: सर, सफलता के लिए एजुकेशन (शिक्षा) चाहिए या नहीं और अगर चाहिए तो कैसी एजुकेशन लेनी चाहिए?

आचार्य प्रशांत: लोअर एजुकेशन (निचले स्तर की शिक्षा) वो है जो तुम्हें तुमसे बाहर की ओर ले जाए, जो हम बचपन से पढ़ते चले आ रहे हैं। नाम क्या बताया?

प्र: सर, नीतीश।

आचार्य: नीतीश, जो हम आजतक बचपन से पढ़ते चले आ रहे हैं। दिस एजुकेशन टेक्स अस आउट ऑफ अवरसेल्व्स (यह शिक्षा हमें हमसे बाहर की ओर ले जाती है)। सो यू लर्न अबाउट द माउंटेंस एंड द रिवर्स, यू लर्न अबाउट द लैंग्वेजेस (आप पहाड़ों और नदियों के बारे में सीखते हैं, आप भाषाओं के बारे में सीखते हैं)। रिवर्स (नदियों) और माउंटेंस (पहाड़ों) तुम नहीं हो, यू आर नॉट दैट रिवर, यू आर नॉट दैट माउंटेन, यू आर नॉट दैट बैटल ऑफ प्लासी ऑर पानीपत (तुम वो नदी नहीं हो, तुम वो पहाड़ नहीं हो, तुम वो प्लासी की लड़ाई नहीं हो, न ही पानीपत की)।

पर हमने यही सब पढ़ा है बचपन से, और जो कुछ पढ़ा है वो दूसरों का दिया हुआ है। ऑल दोज़ बुक्स आर रिटेन बाय अदर्स, सो वी आर बींग टेकेन आउटसाइड ऑफ अवरसेल्व्स एंड टु सम अदर (वह सारी किताबें दूसरे द्वारा लिखी गई हैं, तो हमे खुद से बाहर कहीं और ले जाया जा रहा है )।

बचपन से यही तो पढ़ते आ रहे हो न? दूसरों ने क्या थ्योरीज़ (सिद्धांत) दे दी हैं, दूसरों ने क्या फार्मुले (सूत्र) दे दिए हैं, दूसरों की क्या डिस्कवरीज़ (खोज) हैं, दूसरों की क्या इन्वेशंस (आविष्कार) हैं। दूसरों ने क्या लॉज़ (नियम) बना दिए हैं। यही सब हम बचपन से पढ़ रहे हैं न? गणित में तुमने जो कुछ भी पढ़ा है वो तुमने खुद तो नहीं इज़ाद किया। टेक्नोलॉजी में भी जो कुछ पढ़ा है वो दूसरों का ही दिया हुआ है।

दूसरों का दिया हुआ है और दुनिया के बारे में है, दुनिया माने, ये जो बाहर है सबकुछ। दीज़ टू वर्ड्स आर सेंट्रल, 'अदर्स' एंड 'आउटसाइड' (यह दो शब्द केंद्रीय हैं, 'दूसरे' और 'बाहर')। इट इज़ गिवेन बाय अदर्स एंड इट इज़ अबाउट द आउटसाइड (यह दूसरों द्वारा दिया गया है और यह किसी बाहरी के बारे में है)। विच टू वर्ड्स आर सेंट्रल (कौनसे दो शब्द केंद्रीय हैं)?

प्र: 'अदर्स' एंड 'आउटसाइड'।

आचार्य: ' अदर्स' एंड 'आउटसाइड '। इसीलिए इसको लोअर एजुकेशन माना गया है। क्या माना गया है? लोअर एजुकेशन। ये निचले दर्जे की शिक्षा है जो हमें लगातार मिलती रहती है, क्लासिकली मिलती रहती है। बिकॉज़ इट इज़ बाय द अदर्स एंड इट इज़ अबाउट द आउटसाइड (क्योंकि यह दूसरों द्वारा है और किसी बाहरी के बारे में है)।

हमने देखा यहाँ पर, साइंस (विज्ञान), कॉमर्स (व्यापार), सच थिंग्स (ऐसी चीज़ें) ये सब तुमको बाहर के बारे में तो बताते हैं पर अपने से दूर कर देते हैं। यू बिकम सो एंगेज्ड विथ द वर्ल्ड, विथ द सीन्स ऑफ द वर्ल्ड व्हाट द वर्ल्ड इज़ प्रेसेंटिंग टु यू, दैट यू फॉरगेट हू इज़ लुकिंग एट आल दिस (तुम दुनिया के साथ इतने व्यस्त हो जाते हो, दुनिया के दृश्यों के साथ, दुनिया जो आपको दे रही है, इतने व्यस्त हो जाते हो, कि तुम ये भूल जाते हो कि इस सबको देख कौन रहा है)।

इस लोअर एजुकेशन का एक बड़ा नुकसान ये भी होता है कि तुम अपने आप को भी सिर्फ़ इसी वर्ल्ड का एक हिस्सा समझना शुरू कर देते हो। चूँकि तुम्हारे दिमाग में सिर्फ यही यही भर दिया जाता है, तो हमें ऐसा लगने लग जाता है कि हम भी इसी का एक हिस्सा हैं क्योंकि सिर्फ़ यही एक्सिस्ट (मौजूद) करता है। बात समझ रहे हो?

एक हाइयर एजुकेशन (ऊँची शिक्षा) भी होती है, उसको हमने आजतक जाना नहीं। योर एचआईडीपी इज़ अ करेजियस अटेम्प्ट टु ब्रिंग दैट टु यू (तुम्हारी एचआईडीपी एक साहसी कोशिश है उसी को तुम तक लाने की)। द हाइयर एजुकेशन विल नॉट टॉक एट ऑल अबाउट व्हाट अदर्स हैव डन, व्हाट अदर्स हैव रिटेन (ऊँची शिक्षा बिलकुल भी ये बात नहीं करेगी कि दूसरों ने क्या लिखा है, दूसरों ने क्या किया है)। द हाइयर एजुकेशन सेज़, “लुक इंटु योर्सेल्फ, दैट इज़ योर ओनली रिस्पांसिबिलिटी। लुक एट द कंटेंट ऑफ योर माइंड, लुक एट योर डेली एक्शन्स एंड अंडरस्टैंड व्हाट इज़ हैपेनिंग।" (ऊँची शिक्षा कहती है, "अपने अंदर देखो, वही तुम्हारी एकलौती ज़िम्मेदारी है। अपने मन की सामग्री को देखो, अपने रोज़मर्रा के कर्मों को देखो और समझो कि क्या हो रहा है।")

वास्तव में यह जो शब्द है 'विद्या' दैट आइ हैव रिटेन देयर इज़ क्वाइट सिग्निफिकेंट (वहाँ जो मैंने लिखा है, वो काफी महत्पूर्ण है)। तुम जो कुछ भी पढ़ते रहते हो तुमको लगता यही है कि ये विद्या है, द स्क्रिप्चर्स एक्चुअली कॉल इट (शास्त्र असल में उसे कहते हैं) अविद्या। विद्या की परिभाषा ये है कि विद्या सिर्फ़ वो है जो अपने विषय में हो। इसको, जो तुम पढ़ रहे हो, साइंस टेक्नोलॉजी , इसको अविद्या कहते हैं।

लेकिन साथ-ही-साथ वही स्क्रिप्चर्स (शास्त्र) जो इसको अविद्या कहते हैं, वो ये भी कहते हैं कि अविद्या पूरी तरीके से गैर महत्वपूर्ण नहीं है, पूरे तरीके से महत्वहीन नहीं है। ये भी पता होनी चाहिए। मैं इस कमरे में नहीं बैठ सकता हूँ, तुमसे बातें नहीं कर सकता हूँ, उदाहरण के लिए, अगर मुझे यहाँ आने के लिए जो सड़क है वो पता नहीं है, तुम्हारे कॉलेज आने की सड़क। अब जो सड़क है वो कौन सा नॉलेज (ज्ञान) है, हाइयर नॉलेज है, लोअर नॉलेज है?

प्र: लोअर नॉलेज।

आचार्य: पर वो लोअर नॉलेज भी होना चाहिए। मैं तुमसे कोई बात नहीं कर सकता हूँ अगर मुझे लैंग्वेज (भाषा) नहीं पता है। लैंग्वेज क्या है, हाइयर नॉलेज है, लोअर ?

प्र: लोअर।

आचार्य: तो लोअर नॉलेज भी ज़रूरी है, लेकिन असली चीज़ है हाइयर नॉलेज। असली क्या है? हाइयर नॉलेज। वो हमको दुर्भाग्यवश अवेलेबल (उपलब्ध) होता नहीं है क्योंकि माइंड (मन) की ही वृत्ति लगातार-लगातार बाहर भागने की है और लोअर नॉलेज भी बाहर के बारे में है। इसीलिए बड़ा आसान है लोअर नॉलेज इकठ्ठा कर लेना, बड़ा आसान है। देखो न, तुम्हारी ऑंखें किधर को खुलती हैं, बाहर को, वो बाहर का नॉलेज इकट्ठा करती रहती हैं।

तुम्हारे कान क्या सुनते हैं, लगातार बाहर की बातें। तुम कुछ छूना भी चाहोगे तो किसको छुओगे, कुछ जो बाहर हो। इसीलिए मन की ये स्वाभाविक वृत्ति होती है कि वो बाहर का ही सब इकट्ठा कर ले, अपने बारे में कुछ पता न हो। द रिज़ल्ट ऑफ दिस लोअर एजुकेशन इज़ एज़ दे से, 'स्मार्टफोन्स एंड स्टुपिड पीपल' (इस निचली शिक्षा का नतीजा होता है, 'होशियार फ़ोन और मूर्ख लोग)। ' गाइडेड मिसाइल्स एंड अन-गाइडेड मेन ' (नियंत्रित मिसाइल और अनियंत्रित इंसान)।

तुम्हारे पास ऐसी मिसाइल्स हैं जो परफेक्टली गाइडेड (अच्छे से नियंत्रित) हैं लेकिन लोग ऐसे हैं जिन्हें कोई गाइडेंस (मार्ग-निर्देशन) नहीं है। फ़ोन्स ऐसे हैं जो बड़े स्मार्ट हैं और लोग ऐसे हैं जो एकदम घोंचू। और घोंचू कौन है? घोंचू वो नहीं है जिसे दुनिया का ना पता हो, घोंचू वो है जिसे अपना ना पता हो। दिनभर क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं, पता ही नहीं। क्लास अटेंड कर रहे हैं तो भी नहीं पता कि क्यों कर रहे हैं, अगर ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि सिर्फ़ डर की वजह से अटेंड करते हैं।

और नहीं अटेंड कर रहे तो भी नहीं पता कि क्यों नहीं अटेंड कर रहे। नहीं भी अटेंड कर रहे तो इसीलिए नहीं कर रहे क्योंकि भेड़ चाल है, वहाँ भी डर है, कंसेंसस बना हुआ है कि यार नहीं जाना है तो हम भी नहीं जा रहे। स्मार्टफोन्स एंड स्टुपिड पीपल।

सक्सेस (सफलता) की भी जो तुम्हारी परिभाषा है, सवाल जो था नितीश का, सक्सेस के बारे में था। तुमने सक्सेस को भी किससे बाँध दिया है, हाइयर से या लोअर से?

प्र: लोअर से।

आचार्य: तुमने पूरे तरीके से लोअर से बाँध दिया है सक्सेस को। ये सक्सेस की परिभाषा ही गलत है। तुमने ये सोच लिया है कि बाहर से जिसको जितना ज़्यादा मिलता है वो उतना ज़्यादा सक्सेसफुल (सफल) है, यही सोच लिया है न? भई तुम्हारे मार्क्स (अंक) ज़्यादा आ जाते हैं, किसी में अस्सी आ गए या पिच्यासी-प्रतिशत आ गए तो तुम बोलते हो, “आइ एम सक्सेसफुल (मैं सफल हूँ)”।

ये अस्सी या पिच्यासी तुमने दिए अपने आप को? मैं तुमसे पूछ रहा हूँ, ये अस्सी या पिचासी नंबर बेटा तुमने दिए क्या अपने आप को? किसी और ने तुम्हें सर्टिफिकेट दे दिया और तुम खुश हो गए, तो तुम्हारी सक्सेस की परिभाषा भी यही है कि, "बाहर से कोई मुझे बोल दे कि मैं सक्सेसफुल हूँ।" बाहर वाले ने बोल दिया तुम तुरंत मान लोगे कि तुम सक्सेसफुल हो। यही कारण है कि हम असाइनमेंट्स कॉपी (नकल) करने में बिलकुल परहेज़ नहीं करते।

भई असली चीज़ तो ये है न कि बाहर वाला कोई ये कह दे कि इस असाइनमेंट में तुमको बीस में से मिल गए पंद्रह नंबर, हम खुश हो जाते हैं। असली चीज़ ये थोड़े ही है कि, "उसमें मैंने क्या किया", असली चीज़ ये है कि उसमें बाहर वाले ने कितने मार्क्स दे दिए। अंतर समझ रहे हो न? अब अगर बाहर वाले के मार्क्स बिना मेरे कुछ करे ही मिल जाएँ तो भी क्या बुराई है?

ये सब कुछ इस लोअर एजुकेशन की वजह से हो रहा है जो तुमको सिर्फ और सिर्फ बाहर देखना सिखाती है कि लगातार बाहर की ओर देखते रहो, जनरल अवेयरनेस (सामान्य जागरूकता) बढ़ाते रहो, दुनिया में क्या चल रहा है। जिन्होंने जाना उन्होंने साफ़-साफ़ कहा है कि दुनिया में क्या चल रहा है उससे सौ गुना ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि यहाँ (दिमाग की तरफ इशारा करते हुए) क्या चल रहा है। वो हमारी शिक्षा कभी सिखाती नहीं।

इतने बड़े हो गए, बीस–बीस, बाईस–बाईस साल के हो रहे हो, कोई कोर्स नहीं करा बचपन से आज तक जिसका टाइटल (शीर्षक) हो 'माइंड', करा क्या? कोई सब्जेक्ट (विषय) नहीं था जिसका टाइटल हो ' आइ' या 'मी'। दुनिया की हर चीज़ के बारे में बता दिया गया, एक के बारे में नहीं बताया गया, किसके बारे में?

प्र: आइ (मैं)।

आचार्य: नतीजा सामने है, तुमने सक्सेस को भी यही मान लिया है कि दुनिया को जीत लूँ तो सक्सेस है, जैसे दुनिया जीती जा सकती है। तुम्हारी सक्सेस की परिभाषा ही यही है कि बाहर कुछ मिल जाए तो सक्सेस है। वो सक्सेस अगर चाहिए नीतीश, तब तो ये लोअर एजुकेशन पानी ही पड़ेगी। हाँ, असली सक्सेस अगर चाहिए हो तो लोअर एजुकेशन बहुत काम की नहीं है।

याद रखना मैं यहाँ ये कहने के लिए नहीं बैठा हूँ कि लोअर एजुकेशन होनी ही नहीं चाहिए। लोअर एजुकेशन अगर ना हो तो ये कैमरा नहीं बन सकता, लोअर एजुकेशन अगर ना हो तो ये चॉक भी नहीं बन सकती। जिस चॉक से मैं लिख रहा हूँ यही बात, ये चॉक भी लोअर एजुकेशन से ही बनी है।

तो इसीलिए जिन्होंने जाना उन्होंने ये नहीं कहा कि लोअर एजुकेशन लो ही मत, उन्होंने कहा, “ लोअर एजुकेशन लो पर ये कभी भूलना नहीं कि वो लोअर है, हाइयर कुछ और है, उस हाइयर का ध्यान बना रहे।” और उस हाइयर को हम पूरी तरह से भुला बैठे हैं।

उस हाइयर को हम भुला भी इसीलिए बैठे क्योंकि बचपन से सिर्फ लोअर ही एजुकेशन पाई है और लोअर एजुकेशन कहती है कि, "चलो बाहर वाले को देख के।" बाहर वाले को देखने का मतलब ही होता है फीयर एंड ग्रीड (डर और लालच)। तो हम सिर्फ उस तरफ को जाते हैं जहाँ या तो हमें लालच होता है कि कुछ मिल जाएगा या डर होता है कि डंडा पड़ जाएगा।

अभी हममें से कुछ लोग थे, बात हो रही थी कि एचआईडीपी में अटेंडेंस कम रहती है, इस तरह की बातें। बेटा आपके इतने टीचर्स (शिक्षक) होते हैं, आप बचपन से पढ़ते आ रहे हो, स्कूल में, कॉलेज में। और टीचर्स हर प्रकार के होते हैं। जिन्होंने आपको ये लोअर एजुकेशन दी मैं उन्हीं टीचर्स की बात कर रहा हूँ, ठीक है? उन टीचर्स के बारे में कभी इतने सेलेक्टिव (चयनात्मक) होते हो कि टीचर बहुत अच्छा होगा?

प्र१: चॉइस (विकल्प) नहीं है सर।

आचार्य: डर होता है न?

प्र१: चॉइस नहीं है।

आचार्य: डर होता है चॉइस न होने का। चॉइस तो हमेशा है पर डर क्लास में बैठा देता है।

क्लास के बाहर खड़े हो तो चॉइस तो है ही कि अंदर घुसो या ना घुसो पर डर अंदर घुसेड़ देता है। चॉइस तो है पर डर का फैक्टर अंदर घुसेड़ देता है।

प्र२: अटेंडेंस कंपल्सरी है।

आचार्य: अटेंडेंस कंपल्सरी है, मार्क्स उनके हाथ में हैं। आदत लग गई है हमारी सिर्फ़ इसी तरीके से जीने की। आदत लग गई है हमारी कि अगर डर हो, डर किस बात का? कि अटेंडेंस चली जाएगी या डिसिप्लिनरी ऐक्शन हो जाएगा और लालच हो कि मार्क्स मिल जाएँगे, तो हम कर लेंगे। लेकिन चूँकि यहाँ पर हमारे पास उनको देने के लिए कुछ नहीं है सिवाय उस हाइयर एजुकेशन के, सिवाय उस एक पतली सी शीट के जो हम आकर के तुमको दे देते हैं।

और उस पतली सी शीट की कीमत बहुत है। मैं कह रहा हूँ कोई क्लास हो ही न, सिर्फ़ टीचर आए और वो शीट डिस्ट्रीब्यूट (बाँटना) कर दे तो भी इस एचआईडीपी की कीमत तुम्हारे बाकी सब्जेक्ट्स से सौ गुनी है। तुम टीचर की बात कर रहे हो, मैं कह रहा हूँ टीचर है ही नहीं, एक रोबोट है, रोबोट आया और उसने शीट डिस्ट्रीब्यूट कर दी और उसने कहा, "खुद पढ़ो और खुद समझ लो तो भी एचआईडीपी बहुत कीमती है।"

लेकिन तुम मानोगे नहीं, तुम आओगे नहीं और पूछा जाएगा तो ये और कहोगे कि, " द एचआईडीपी टीचर इज़ नॉट गुड एनफ (एचआईडीपी शिक्षक उतने अच्छे नहीं हैं)।" बाकी टीचर्स भी नॉट गुड एनफ (उतने अच्छे नहीं) होते हैं, क्या उनकी क्लास बंद कर देते हो कि नॉट गुड एनफ ? यहाँ पर तुम लिबरल हो जाते हो, फ्रीडम (आज़ादी) की बात करते हो, जबकि यहाँ पर तो टीचर का रोल बहुत कम है।

असल में अगर स्टूडेंट (छात्र) थोड़ा भी इंटेलिजेंट (बुद्धिमान) है तो वो एक्टिविटी शीट काफी है, वो बनाई ही इस तरीके से गई हैं कि सेल्फ–सस्टेनिंग (आत्मनिर्भर) रहें। तुमने कभी ध्यान दिया है, ऊपर डायरक्शंस (निर्देश) तक लिखे होते हैं कि एक्टिविटी करनी कैसे है, देखा है? एक्टिविटी होती है, डायरक्शंस तक ऊपर लिखे होते हैं। थोड़ा भी अगर अलर्ट क्राउड (सतर्क समूह) है तो वो टीचर पर विशेष रूप से डिपेंडेंट (निर्भर) है ही नहीं, टीचर अगर कुछ दे दे तो वो बोनस है, एक्स्ट्रा। नहीं भी दे तो काफी है।

पर खुद करने के लिए एक इंसान चाहिए जिसे अपने आप से प्यार हो, अपने आप से। इस लोअर एजुकेशन ने हमें अपने आप से बहुत दूर धकेल दिया है। हम ये नहीं देखते हैं कि हमें अपने-आप से कितना प्यार है, हम ये देखते हैं कि दूसरे हमको क्या दे पाएँगे, दूसरों से सर्टिफिकेट मिलेगा कि नहीं मिलेगा।

कुछ यूनिवर्सिटीज (विश्विद्यालय) हैं जहाँ ये प्रोग्राम चल रहा है। अब चूँकि वो यूनिवर्सिटीज हैं, समझना इस बात को, तो उन्होंने इस प्रोग्राम को एक प्रॉपर क्रेडिट कोर्स ही बना दिया है। जैसे बाकी कोर्सेज होते हैं न कि उनके मार्क्स होते हैं और तुम्हारी मार्कशीट में जाते हैं और उनका परसेंटेज काउंट होता है। तो उन्होंने इसको ऐसे ही बना दिया। अब इसके प्रॉपर टेस्ट होते हैं, दो माइनर एग्जाम होता है, एक मेजर एग्जाम होता है, एक प्रोजेक्ट होता है, प्रोजेक्ट पर बीस-प्रतिशत महत्त्व है।

क्लासेस खचाखच भरी रहती हैं एचआईडीपी की, खचाखच। मजाल है कि कोई बंक मार दे, अस्सी परसेंट अटेंडेंस कंपल्सरी है और अगर कोई क्लास में थोड़ी भी चूँ-चपड़ करे तो बस उसको इतना बोलना होता है कि बाहर चले जाओ, अटेंडेंस नहीं मिलेगी। “सॉरी मैम, मैम प्लीज़ मैम, एचआईपीडी इज़ लवली, लेट मी बी हियर, प्लीज़, मुझे बाहर मत भेजो, मुझे बाहर मत भेजो”।

यहाँ पर क्या करना पड़ता है कि बाहर से खींच–खींच कर लाना पड़ता है कि चलो। एचआईडीपी में अंतर नहीं है, अंतर बस इतना है कि हमारी आदत लग गई है कोअर्शन (दबाव) की। यहाँ पर कहा जाता है कि ईमेल्स लिखकर के भेजो रिफ्लेक्शंस पर, क्या सीखा, क्या नहीं सीखा, क्या सवाल है, तो हफ़्ते में यहाँ पर नौ-सौ स्कूल्स के लिए प्रोग्राम चल रहा होगा, हफ्ते में दस जनों की मेल आ जाए तो बड़ी बात है।

वहाँ पर कह दिया गया है कि दस नंबर इसी ईमेल के ही हैं, तो इतनी लंबी-लंबी ईमेल लिखते हैं। बिना बात की लिख रहे हैं, पर ये, लंबी-लंबी लिख रहे हैं। अब मज़ा ये है कि इतना लंबा जब लिखोगे तो उसमें कुछ तो फायदा हो ही जाता है। एग्जाम के लिए ही सही, जब इस शीट को पढ़ोगे, शीट है ' पर्सनैलिटी एंड इंडीविजुएलिटी' या 'फीयरलैसनेस'। जो लास्ट एक्टिविटी थी 'आइ वर्सेस आइ' वो हो गई है तुम्हारी?

प्र: नहीं, फीयरलैसनेस।

आचार्य: फीयरलैसनेस हुई, आइ वर्सेस आइ हुई नहीं? नाउ दैट एक्टिविटी इज़ अ ब्यूटीफुल शीट, इट्स जस्ट अ पीस ऑफ लिटरेचर (अब वह एक्टिविटी एक बहुत ही सुन्दर शीट है, बीएस साहित्य का एक टुकड़ा है)। उसको ये तो छोड़कर पढ़ो ही मत कि ये कोई क्लास में कराई जाने वाली एक्टिविटी है, उसको अगर सिर्फ लिटरेचर की तरह पढ़ो, एक आर्टिकल है, तो भी पता नहीं कितना फ़ायदा हो जाएगा, एक घर में बैठे-बैठे तुम उसको पढ़ लिए, पर पढ़ोगे नहीं।

लेकिन जिसको पता है कि एग्जाम में इससे सवाल आना है वो पढ़ेगा। और एग्जाम में जब जवाब लिखते हैं, पूरी-की-पूरी शीट उतार देते हैं, रट के आए हुए हैं। अब एग्जाम के लिए ही रटा लेकिन उस शीट को पढ़ा और उस पढ़ने से ही बड़ा फ़ायदा हो गया है। सो इट्स अ स्ट्रेंज सिचुएशन व्हेयर वी नाउ फाइंड अवरसेल्व्स (तो यह बड़ी विचित्र स्थिति है जिसमें हम अब अपने आपको पाते हैं)। दिस लोअर एजुकेशन हैज़ ब्रॉट अस टु अ प्वाइंट व्हेयर अवर माइंड इस टोटली डिस्टॉर्टेड, इट अंडरस्टैंड्स नो लैंग्वेज एक्सेप्ट द लैंग्वेज ऑफ मार्क्स, सर्टिफिकेट्स, जॉब, थ्रेट, फीयर, ग्रीड (यह निचली शिक्षा हमें अब इस बिंदु पर ले आई है जहाँ हमारा मन अब बिलकुल विकृत हो चुका है, उसे अब अंक, सर्टिफिकेट, नौकरी, डर, लालच के अलावा कोई भाषा समझ नहीं आती)। हमारा मन सिर्फ़ यही भाषा समझता है।

हमने कुछ भी सिर्फ़ अपने लिए करना बिलकुल छोड़ दिया है। हम कुछ भी करने से पहले तो सवाल क्या पूछते हैं पता है, “फ़ायदा क्या होगा, इसकी कुछ मार्केट वैल्यू है?” हम बिकाऊ हैं क्या? एक हर चीज़ के लिए मार्केट वैल्यू पूछते रहते हैं। आर वी ऑलवेज़ ऑन सेल (क्या हम हमेशा बिकाऊ हैं), मैं बिकने के लिए तैयार खड़ा हूँ?

पर तुम देखो न यहाँ कुछ भी तुम कर रहे होते हो अल्टीमेटली (अंततः) ये लोअर एजुकेशन तुमसे कहती है कि हर चीज़ का फाइनल प्वाइंट (अंतिम बिंदु), क्लाइमैक्स (उत्कर्ष) ये है कि तुम्हारी नौकरी क्या लगेगी, यही है न? एडमिशन के समय पर भी माँ-बाप सवाल यही पूछते हैं, “यहाँ प्लेसमेंट कैसा होता है?” तो यानी हर चीज़ घूम फिर कर के इस बिंदु पर आकर समाप्त होती है कि, "हम बिकेंगे कितना?"

ये लोअर एजुकेशन तुम्हें यही करती है, तुम्हें सिर्फ़ बिकाऊ बनाती है कि अब ये बिकने काबिल है, इसको चार साल तैयार कर दिया गया है, अब कोई कंपनी आकर इसको खरीद ले जाएगी। और तुम समझते हो अच्छी एजुकेशन वही है जो तुम्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा कीमत पर बेच सके कि, "ये यहाँ से देखो पंद्रह-हज़ार में बिकेगा और वो दूसरा कॉलेज है वहाँ से पच्चीस-हज़ार में बिकेगा।" तो पच्चीस-हज़ार वाला पंद्रह-हज़ार से बेहतर कॉलेज है। यही तो है न?

ये सब इस लोअर एजुकेशन ने करा है और यही कारण है कि फिर नीतीश सवाल पूछ रहे हैं कि, "सर सक्सेस के लिए एजुकेशन चाहिए कि नहीं चाहिए?" बेटा सक्सेस का अगर मतलब पच्चीस-हज़ार और पंद्रह-हज़ार है तब तो बिलकुल ये लोअर एजुकेशन ही चाहिए पर अगर सक्सेस का कुछ और अर्थ है, सक्सेस का अर्थ अगर ये है कि एक ज़िन्दगी पाई है भई, और ज़िन्दगी बाज़ार का नाम नहीं है, ज़िन्दगी के कुछ और अर्थ होते हैं।

सक्सेस का अगर वो अर्थ है तो फिर लोअर से थोड़ा सा ऊपर जाना पड़ेगा जहाँ पर क्या है? हाइयर। खूब सारे पैसों की नौकरी करनी है तो बीटेक करा है, अब इसके बाद एमबीए कर लो। जो एमबीए वाले होते हैं उनका पैकेज (सालाना आय) बीटेक वालों से थोड़ा ज़्यादा ही होता है। कर लो, अगर सक्सेस का अर्थ तुम्हारे लिए यही है कि, " अल्टीमेटली मेरे हाथ में पैसे कितने आ रहे हैं", तब तो फिर तो लोअर एजुकेशन बढ़ाते जाओ। यूएस चले जाओ वहाँ से एमएस कर लो फिर डॉलर सैलरी मिलेगी।

लोअर एजुकेशन का अर्थ है, "मैं दुनियादारी में बड़ा पारंगत हो गया। अदर्स एंड द वर्ल्ड (दूसरे और दुनिया), ये सब मैंने खूब जान लिया।" जानते चलो, खूब जानते चलो, जितना जानोगे उतना पैसा बढ़ेगा। लेकिन बड़ी गरीबी की ज़िन्दगी हो जाएगी, दुनिया पा लोगे, खुद को खो दोगे। कैसा लगेगा, दुनिया पा ली और पूछा गया, "किसने पाई?" बोलोगे, "ये पता नहीं।" दुनिया तो पा ली, पाई किसने, ये पता नहीं।

ऐसे ही चलने देना चाहते हो? तुम सब सक्सेस के पीछे दौड़ रहे हो, एक बार समझ तो लो कि सक्सेस माने क्या। सक्सेस माने क्या? और मैं तुमसे मिलूँगा नहीं, शायद तुमसे चार, पाँच या छह बार संवाद में मिल चुका हूँ पहले। कई लोग हो गए जिनका ये चौथा या पाँचवाँ या छठा संवाद होगा। सब थर्ड ईयर (तीसरे साल) वाले ही हैं न?

प्र: जी सर।

आचार्य: चार सेमेस्टर। हाँ, पाँच बार कम-से-कम, छह बार और शायद हर बार मैंने तुमसे पूछा है कि सक्सेस क्या है। घुमा फिरा कर के ये सवाल हर बार सामने आया है कि, " सक्सेस चाहिए तो सबको, सक्सेस है क्या?" थोड़ा सा ये तो रुक जाओ कुछ लोग।

पर तुम्हारी भी गलती नहीं है, अभी यहाँ से निकलोगे फिर भीड़ के हिस्से बन जाओगे, फिर तुम्हारे कानों में वही सब बातें पड़ने लगेंगी, फिर वही आवाज़ें पड़ने लगेंगी कि सक्सेस माने ये, सक्सेस माने वो। अब तुम फिर पूरी तरह सब भूल जाओगे।

और फिर जल्दी ही अब फोर्थ ईयर (चौथा साल) आ जाएगा और वहाँ पर तो और चीज़ें भी चालू हो जानी हैं। कंपनीज़ आएँगी, प्रेज़न्टेशन देने लगेंगी। वो एचआर मैनेजर होगी, वो बोलेगी, " वी प्रॉमिस यू अ सक्सेसफुल करियर (हम आपको एक सफल करियर देने का वादा करते हैं)”। और जो पूरी ऑडियंस (दर्शक) बैठी होगी, चार, साढ़े-चार-सौ लोगों का बैच है। जब एचआर प्रेज़न्टेशन होती हैं तो उसमें तो सभी आ ही जाते हो। संवाद के लिए भले ही एक-सौ-बीस में से तीस लोग आओ। पर अभी यहाँ पर अगर किसी कंपनी की पीपीटी चल रही होती तो एक-सौ-बीस में से एक-सौ-पच्चीस लोग आते।

पाँच ऐसे भी आ जाते जिनका कोई लेना ही देना नहीं है, वो भी आ जाते। अब ये तो क्या है, एक महत्वहीन संवाद है, इसमें क्या करना है आकर के। तो वहाँ पर जब वो बोलेगी कि, " वी प्रॉमिस यू अ सक्सेसफुल करियर ", तो एक नहीं होगा जो उठ कर पूछे, “ सक्सेस माने क्या?” एक नहीं होगा और तुम सब बह जाओगे, “अहा सक्सेस , जय माता दी, बताइए कहाँ चलना है हम अभी चलते हैं आपके पीछे पीछे, सक्सेस दे दीजिए बस” झुनझुना बजाते हुए।

पाइड-पाइपर देखा है न? पाइड-पाइपर क्या? द पाइड-पाइपर ऑफ हैमेलिन।

प्र: जी सर।

आचार्य: वो पाइप बजा रहा है पीप, और उसके पीछे-पीछे क्या चले आ रहे हैं?

प्र: चूहे।

आचार्य: चूहे। शहर भर के चूहे उसके पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। समझ रहे हो बात को? सारे सक्सेस के पीछे जा रहे हैं चूहे। पाइड पाइपर ऑफ हैमेलिन।

लेकिन हाँ ये ज़रूर है कि घर-परिवार में नाम हो जाएगा, तुम तुरंत फ़ोन करके बताओगे, “मम्मा, ट्वेंटी-थाउजेंड (बीस-हज़ार)!” मम्मा पापा को बताएँगी कि ट्वेंटी-थाउजेंड। पापा पड़ोसी को बताएँगे ट्वेंटी-फाइव-थाउजेंड (पचीस-हज़ार)।

(सभी हँसते हैं)

पड़ोसी अपने बेटे को बताएगा थर्टी-फाइव-थाउजेंड (पैंतीस-हज़ार)। जो तुम्हें चाहिए था वो तुम्हें मिल गया। यही तो तुम्हें चाहिए था न कि दूसरे कह दें कि तुम कुछ हो, यही तो तुम्हें चाहिए था, मिल गया। यही तो सक्सेस है बेटा, और क्या है, कोई और आकर कह दे।

देखो न दिल कितना चौड़ा हो जाता है जब कोई आकर कहता है कि, "कितनी अच्छी लड़की है!" और अगर कोई अनजाना ही आदमी आक्र कह दे 'स्टुपिड' तो कितना बुरा लगता है। पूरी ज़िन्दगी ही ऐसी बीत रही है, अदर्स , वही लोअर एजुकेशन , अबाउट द वर्ल्ड , अदर्स , दुनिया।

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